चोटी की पकड़–95

उन्तीस


मुन्ना ने देखा, दस बज गए। सिपाहियों को (20-20) रुपए इनाम दिया था। बाजार से कपड़ा आ गया था। 

टुकड़े काटकर साफे बना लिए। रानी के अपमान का प्रभाव सब पर है। सब चाहते हैं, राजा ऐसा न करें कि उनके रहते एजाज को रखें।

डंडे सबके हाथ में, पुलिसवाले नहीं, मिर्जापुरी। चमरौधे की नोक देखते, सिंहद्वार की बत्ती के इधर-उधर टहल रहे हैं।

रुस्तम को सिखा दिया। चलने और पहुँचने का रास्ता और समय मुक़र्रर कर दिया। पहरे की दो तलवारें निकलवा लीं।

 रुस्तम को दी। एक बुआ के बाँधकर ले चलने के लिए, एक खुद बाँधे रहने के लिए।

 एकांत में दो घंटे तक रहना है, कहकर ध्वनि में समझा दिया, और विश्वास बँधा दिया कि बुआ को उसने समझा दिया है।

बुआ उसकी बात पर आ चुकी थीं, एक सत्य, एक न-जाना दबाव, एक तड़प थी जिससे उनके पैर उठे।

 ढाढ़स बँधा, मुन्ना मिलेगी। कुछ बिगड़ने न पाएगा, अगर वे खुद न बिगाड बैठीं।

बुआ को सबसे पहले मुन्ना ने खिड़की से निकाला। सिपाहियों को यह बात नहीं मालूम। 

रुस्तम कोठी की खिड़की की दूसरी तरफ खड़ा राह देख रहा था। दोनों कंधों पर पेटी से बँधी म्यान के साथ दो तलवारें लिए था।

 मुन्ना ने बुआ को रुस्तम के हवाले किया और लौटी। मन में ब्राह्मणों के सत्यानाश का दरवाजा खोला।

बुआ शरमायीं। मुन्ना को देखकर एक दफे जैसे बल खा गईं। सँभलकर निगाह बदली और रुस्तम के साथ चल दीं।

मुन्ना मुस्करायी। जमादार के पास आई। सिपाहियों को मिठाई और पूरी और दस-दस बीड़े पान बाँध लेने के लिए बाजार भेजा। दो घंटे का वक्त निकाला। जमादार को एकांत में लेकर बातचीत करने लगेगी।

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